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प्रश्न) विधिक निर्योग्यता से आप क्या समझते है? क्या आप इस मत से सहमत है कि “जब एक बार समय का चलना प्रारंभ हो जाए तब वाद संस्थित करने या आवेदन करने की किसी भी पाश्चिक निर्योग्यता या अयोग्यता से वह रुक नहीं सकता।“ चर्चा करे ।


उत्तर) विधिक निर्योग्यता
परिसीमा काल में वृद्धि का एक आधार विधिक निर्योग्यता {लीगल डिसेबिलिटी} भी है। 
परिसीमा अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत इसका प्रावधान किया गया है। आवेदन प्रस्तुत करने के समय वादी अथवा आवेदक का सक्षम अर्थात वयस्क एवं स्वस्थ चित्त  होना आवश्यक है यदि कोई व्यक्ति उस समय अवयस्क या पागल या जड़ है तो वह वाद या आवेदन संस्थित नहीं कर सकता ऐसे व्यक्तियों के लिए धारा 6 में निम्नलिखित व्यवस्था की गई है।

धारा ६ के अंतर्गत तीन प्रकार के व्यक्तियों को लाभ प्रदान किया गया है 
Ø  अवयस्क
Ø  मूढ़
Ø  पागल
धारा 6 (1) के अनुसार, जहां की कोई ऐसा व्यक्ति जिसे वाद संस्थित करने या किसी डिग्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने का हक हो, उस समय, जबकि विहित काल की गणना की जानी है, अवयस्क या पागल या जड़ हो, वहां उस निर्योग्यता का अंत होने के पश्चात वह उतने ही काल के भीतर बाद संस्थित कर सकेगा या आवेदन कर सकेगा जितना उसे अन्यथा अनुज्ञात होता।
अभिप्राय यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति वाद संस्थित करने या डिग्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने के समय के प्रारंभ पर अवयस्क पागल या जड़ है तो ऐसे काल की गणना ऐसी निर्योग्यता समाप्त होने के पश्चात से की जाएगी।
उदाहरण के लिए एक ऋण वसूली हेतु वाद दायर करने के लिए अवधि की गणना दिनांक 15 सितंबर 2014 से प्रारंभ होनी है, लेकिन उस दिन वादी अवयस्क, पागल या जड़ है। वादी दिनांक 10 मई 2019 को वयस्क अथवा स्वस्थचित्त हो जाता है। यहां वादी द्वारा वाद दायर करने के लिए  विहित काल की गणना 10 मई 2019 से की जाएगी।
धारा 6(1) की प्रयोज्यता के लिए यह आवश्यक है कि जिस वक्त वादकाल प्रारंभ हो रहा है वादी उस समय निर्योग्यता से ग्रस्त हो। वाद काल प्रारंभ होने के समय यदि वह किसी निर्योग्यता से ग्रस्त नहीं है तो वाद काल प्रारंभ होने के बाद होने वाली निर्योग्यता से वाद काल की गणना नहीं रोकी जा सकती।
धारा 6 कि उपधारा 2 यह प्रावधान करती है कि यदि कोई व्यक्ति, उस समय, जब की विहित काल की गणना की जानी है, ऐसी दो निर्योग्यताओ से ग्रस्त हो अथवा जहां वह एक निर्योग्यता का अंत होने के पूर्व दूसरी निर्योग्यता से ग्रस्त हो जाए, वहां वह दोनों निर्योग्यताओ का अंत होने के पश्चात उतने ही काल के भीतर वाद संस्थित कर सकेगा या आवेदन कर सकेगा जितना अन्यथा अनुज्ञात होता।
उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वाद संस्थित करने के लिए विहित काल की गणना के प्रारंभ के समय अवयस्क है और वयस्क होने से पहले ही वह पागल या जड़ हो जाता है ऐसी स्थिति में विहित काल की गणना उसके व्यस्क तथा स्वस्थचित्त होने के पश्चात से की जाएगी।
धारा 6(3) के अनुसार यदि ऐसी कोई निर्योग्यता मृत्यु पर्यंत बनी रहती है, तब उसका विधिक प्रतिनिधि उसकी मृत्यु के पश्चात उतने ही काल के भीतर वाद संस्थित कर सकेगा या आवेदन कर सकेगा जितना उसे अन्यथा अनुज्ञा होता।
अर्थात यदि किसी अवयस्क व्यक्ति की मृत्यु उसके वाद लाने के लिये सक्षम होने से पूर्व ही हो जाती है तब उस उसके विधिक प्रतिनिधि द्वारा वाद दायर करने हेतु विहितकाल की गणना वयस्क व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात से की जाएगी।
धारा 6(4) के अनुसार यदि ऐसे अवयस्क व्यक्ति की मृत्यु के समय उसका विधिक प्रतिनिधि भी किसी निर्योग्यता से ग्रस्त है तो विहित काल की गणना उसकी निर्योग्यता समाप्त होने के बाद से की जाएगी।
6(5) के अनुसार, यदि निर्योग्यता के अधीन कोई व्यक्ति निर्योग्यता का अंत हो जाने के पश्चात किंतु उस काल के भीतर, जो उसके लिए इस धारा के दिन अनुज्ञात है, मर जाता है, तब उसका विधिक प्रतिनिधि उसकी मृत्यु के पश्चात उसी काल के भीतर वाद संस्थित कर सकेगा या आवेदन कर सकेगा जितने के भीतर वह कर सकता यदि उसकी मृत्यु नहीं हुई होती।
धारा 6 के स्पष्टीकरण के अनुसार अवयस्क मे गर्भस्थ शिशु समाहित है।
इस प्रकार धारा 6 वाद संस्थित करने तथा आवेदन करने के प्रयोजन से निर्योग्यता के कारण काल को विहित काल की गणना से अपवर्जित करती है अर्थात निर्योग्यता की समाप्ति के पश्चात से वाद काल की गणना के बारे में प्रावधान करती है।

अधिनियम की धारा 7 यह प्रावधान करती है कि जहां वाद संस्थित करने या डिग्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने के लिए संयुक्त रूप से हकदार व्यक्तियों में से कोई एक किसी निर्योग्यता से ग्रस्त हो और उस व्यक्ति की सहमति के बिना उन्मोचन दिया जा सकता हो, वहां उन सभी व्यक्तियों के विरुद्ध समय का जाना प्रारंभ हो जाएगा।
लेकिन जहां निर्योग्य व्यक्ति की सहमति के बिना उन्मोचन नहीं दिया जा सकता हो, वहां किसी एक के भी विरुध समय का जाना तब तक प्रारंभ नहीं होगा, जब तक कि उनमें से कोई एक अन्य की सहमति के बिना ऐसा उन्मोचन देने के लिए समर्थ ना हो जाए या उस निर्योग्यता का अंत ना हो जाए।

समय का निरंतर चलते रहना धारा 9
 परिसीमा अधिनियम 1963 की धारा 9 में एक महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया है कि “जब एक बार समय का चलना प्रारंभ हो जाए तब वाद संस्थित करने या आवेदन करने की किसी भी पाश्चिक निर्योग्यता या अयोग्यता से वह रुक नहीं सकता।“
अभिप्राय यह हुआ कि परिसीमन काल की गणना के समय यदि कोई व्यक्ति किसी निर्योग्यता से ग्रस्त है तो वह काल परिसीमा की गणना में नहीं माना जाता है और ऐसे मामलों में भी परिसीमा काल की गणना निर्योग्यता की समाप्ति की तिथि से की जाती है। लेकिन यदि परिसीमा काल की गणना के समय ऐसा व्यक्ति सक्षम है अर्थात निर्योग्यता से ग्रस्त नहीं है तो समय का जाना प्रारंभ हो जाएगा और पश्चातवर्ती कोई भी निर्योग्यता उसे रोक नहीं सकेगी। इस प्रकार समय का जाना तब प्रारंभ होता है जब वाद कारण उत्पन्न हो जाए तथा वादी या आवेदक वाद संस्थित करने या आवेदन करने के लिए सक्षम हो।
उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वाद संस्थित करने के लिए विहित काल की गणना के प्रारंभ के समय दिनाक 10/07/2015 को वयस्क और स्वस्थचित्त है परंतु आगे जाकर 20/08/2015 को वह पागल या जड़ हो जाता है ऐसी स्थिति में विहित काल की गणना 10/07/2015 से प्रारम्भ हो जयेगी दिनांक 20/08/2015 कि निर्योग्यता उसे रोक नहि पयेगी।
इस प्रकार समय का चलना प्रारंभ हो जाता है जब-
क)   वाद कारण उत्पन्न हो जाय, तथा
ख)   वादि या आवेदक वाद संस्थित करने या आवेदन करने के लिये सक्षम हो या हो जाये।
Dr Nupur Goel
Assistant Professor
Shri ji institute of legal vocational education and research
( SILVER law collage )
Barkapur Bareilly
Email – nupuradv@gmail.com

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