#परिसीमा_अधिनियम_1963_की_धारा12से18 #परिसीमा_अवधि_पर_कपट_भूल_म्रत्यु_तथा_अभिस्विक्रति_के_प्रभावो_का_वर्णन #limitation_act_section_12_to_18_in-hindi
प्रश्न) परिसीमा काल की संगणना में किन किन दिनों को निकाल दिया जाएगा? मर्यादा / परिसीमा अवधि पर कपट, भूल, म्रत्यु म्रत्यु तथा अभिस्विक्रति के प्रभावो
का वर्णन करे।
परिसीमा अधिनियम 1963 की धारा 12 से 18
तक इस बात का
वर्णन करती है कि परिसीमा काल की संगणना किस प्रकार की जाएगी और किन दिनों को उसमे
से निकाल दिया जाएगा। इन धाराओ के अनुसार निम्न दिनो को संगणना मे से निकाल दिया जयेगा-
1)
विधिक कार्यवाहियो मे लगे समय का अपवर्जन - अधिनियम कि धारा 12(क) के अनुसार किसी बाद अपील आवेदन के परिसीमा काल
की संगणना करने में वह दिन अपवर्जित कर दिया जाएगा जिससे ऐसे परिसीमा काल की गणना
की जानी है। उदाहरण के तौर पर यदि वाद कारण दिनांक 1 अप्रैल 1999
को उत्पन्न हुआ
है वहां परिसीमा काल की संगणना दिनांक 2 अप्रैल 1999
से की जाएगी।
धारा 12(ख) के अनुसार परिसीमा कल की संगणना में से वह दिन अपवर्जित
कर दिया जाएगा जिस दिन निर्णय सुनाया गया था।
धारा 12(ग) के अनुसार परिसीमा काल की संगणना में से वह समय भी अपवर्जित
कर दिया जाएगा जो संबंधित डिग्री या आदेश, जिसके विरुद्ध अपील, पुनरीक्षण या
पुनर्विलोकन किया जाना है; की प्रतिलिपि प्राप्त करने में लगा है।
धारा 12(घ) के अनुसार किसी पंचाट को अपास्त कराने हेतु
आवेदन के परिसीमा काल कि संगणना में से वह
समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जो ऐसे पंचाट की प्रतिलिपि लेने में लगा है।
लेकिन धारा 12 के स्पष्टीकरण के अनुसार डिक्री या आदेश की
प्रतिलिपि प्राप्त करने में वह समय अपवर्जित नहीं किया जाएगा जो न्यायालय ने उस
डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि के लिए आवेदन किए जाने से पूर्व डिग्री या आदेश को
तैयार करने में लगाया हो।
2) अकिंचन के रूप मे वाद या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन मे
लगे समय का अपवर्जन- धारा 13 के अनुसार जहां कि अकिंचन के रूप मे वाद या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया
गया हो और वह न्यायालय द्वारा खारिज हो गया हो वहां उस वाद अथवा अपील के लिए विहित
परिसीमा काल की संगणना मे से उतना
समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जितने समय के दौरान आवेदक इस इजाजत के लिए अपना आवेदन
सद्भावपूवर्क अभियोजित करता रहा हो, तथा ऐसे वाद या अपील के लिए विहित न्यायालय कि
फीस दे दी जाने पर न्यायालय उस वाद या अपील को वही बल और प्रभाव रखने वाली मानकार
बरतेगा मानो न्यायालय फीस प्रारम्भ मे ही दे दी गई हो।
इस काल के
अपवर्जन के लिये निम्न बाते आवश्यक है-
Ø अकिंचन के रूप मे वाद या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया
गया हो
Ø आवेदन न्यायालय द्वारा खारिज हो गया हो
Ø आवेदन सद्भावपूवर्क अभियोजित किया गया हो।
3)
बिना अधिकारिता वाले न्यायालय में सद्भाव पूर्वक की गई कार्यवाही में लगे समय का
अपवर्जन - कभी-कभी कोई कार्यवाही सद्भाव पूर्वक गलत न्यायालय में या ऐसे न्यायालय में
संस्थित कर दी जाती है जिसे उसके विचारण की
अधिकारिता नहीं होती है ऐसे मामलों में सक्षम न्यायालय में जाने के लिए वादी के
समक्ष परिसीमा का प्रश्न आ जाता है इसी के संबंध में धारा 14 मे प्रवधान किया गया है। धारा 14 के अनुसार किसी वाद की परिसीमा काल की संगणना में से वह समय
अपवर्जित कर दिया जाएगा जो ऐसे प्रथम बार के या अपील या पुनरीक्षण न्यायालय में
सदभावना पूर्वक की गई कार्यवाही में लगा है जिसे उसकी सुनवाई करने की अधिकारिता
नहीं थी या तथा जो अधिकारिता की त्रुटि या वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतु से उसे
ग्रहण करने में असमर्थ था।
4) कुछ अन्य मामलों में समय का अपवर्जन - धारा 15 उन मामलों का उल्लेख करती है जिनमें परिसीमा काल की संगणना
मे से समय का अपवर्जन किया जाता है ऐसे मामले निम्नलिखित हैं
क)
वो समय जो किसी वाद या आवेदन संस्थित किये जाने को व्यादेश
या आदेश द्वारा रोक दिये जाने के कारण लगा है,
ख)
वो समय जो विधि द्वारा अपेक्षित सूचना देने या पूर्व मंजूरी
प्राप्त करने में लगा है,
ग)
जो डिक्री अपास्त कराने की कार्यवाही में लगा है,
घ)
जितने समय तक प्रतिवादी भारत से बाहर रहा है।
5) कपट या भूल का प्रभाव- परिसीमा अधिनियम 1963 की धारा 17 मे कपट एवं भूल के प्रभाव का उल्लेख किया
गया है। इसके अनुसार जहां किसी वाद या आवेदन के मामले में जिसके लिए परिसीमा काल
विहित है वह वाद या आवेदन प्रतिवादी या प्रत्यर्थी या उसके अभिकर्ता के
कपट पर आधारित है अथवा किसी भी भूल का परिणाम है या किसी आवश्यक दस्तावेज को
कपट्पूर्वक छुपाया गाया है वहा परिसीमा काल का चलना तब तक प्रारंभ नहीं होगा जब तक
कि वादी या आवेदक को उस कपट या भूल का पता नहीं चल जाता अथवा छिपाई गई दस्तावेज
वादी आवेदक को प्राप्त नहीं हो जाती है।
6) लिखित अभिस्वीकृति का प्रभाव- धारा 18 में लिखित अभिस्वीकृति के संबंध में प्रावधान किया गया है। अभिस्वीकृति
से अभिप्राय संपत्ति अधिकार विषयक किसी दायित्व के स्वीकार किए जाने से है। जहां
कोई व्यक्ति अर्थात ऋणी अथवा प्रतिवादी किसी ऋण अथवा संपत्ति विषयक अपने दायित्व स्वीकार
करता है वहा परिसीमा की दृष्टि से समय पर जाना है ऐसी अभिस्वीकृति की तिथि से माना
जाता है ऐसी अभिस्वीकृति से सीमा काल में अभिव्रधि हो जाती है। उदाहरण के लिए क
द्वारा ख के विरुद्ध धन लौटाने की मांग दिनांक 6 /9/1974 को की जाती है ख 6/8/ 1976 को एक अभिस्वीकृति इस आशय की करता है कि वह देनगी को स्वीकार
करता हैं तथा बजट पारित होने पर वे शीघ्र ही बकाया राशि का भुगतान कर देगा। यह अभिस्वीकृति
विहित काल अर्थात 3 वर्ष के भीतर होने के कारण परिसीमा काल के
अन्दर है अतः परिसीमाकाल की गणना दिनांक 6/8/1976 से की जाएगी।
विधिमान्य अभिस्वीकृति के लिए निम्नलिखित शर्तो का पूरा
होना आवश्यक है-
Ø संपत्ति अधिकार विषयक दायित्व को स्वीकार
किया जाना चाहिए
Ø ऐसी अभिस्वीकृति लिखित में होनी चाहिए
Ø अभिस्वीकृति करने वाले व्यक्ति द्वारा
हस्ताक्षरित होनी चाहिए
Ø ऐसी अभिस्वीकृति विहित काल अवधि के भीतर
की गई होनी चाहिए
ऐसी अभिस्वीकृति नये परिसीमा काल का उद्भव करती है अतः ऐसी अभिस्वीकृति से नये परिसीमन काल का उद्भव हो जाता है।
7) ऋण लेखे संदाय का प्रभाव- धारा 19 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति द्वारा या उसके अभिकर्ता द्वारा
जो किसी ऋण या वसीयत संपदा के संदाय के
लिए दायी है; कोई संदाय उस ऋण के पेटे या वसीयत के ब्याज पेटे विहित काल के अवसान से पूर्व
किया जाता है तब यह संदाय की तिथि से परिसीमा काल का जाना प्रारंभ होता है। धारा 19 के प्रयोजनों के लिए निम्नलिखित शर्तें
का पूरा होना आवश्यक है –
Ø पहला ऋण या वसीयत संपदा के संदाय के किसी
व्यक्ति द्वारा या उसके अभिकर्ता द्वारा उस ऋण लेखे या वसीयत के ब्याज लेखे कोई
संदाय किया जाना चाहिए
Ø ऐसा संदाय विहित परिसीमा काल के अवसान से
पूर्व किया जाना चाहिए
Ø लिखित में किया जाना चाहिए
Ø हस्ताक्षरित होना चाहिए
8) किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अभिस्वीकृति या
संदाय का प्रभाव- धारा 20 के अनुसार कुछ
व्यक्तियो द्वारा की गई अभिस्वीकृति उस व्यक्ति पर बाध्यकारी होती है जो वास्तव मे
दायी हो। जहां कोई व्यक्ति निर्योग्यता के कारण
स्वयं अभिस्वीकृति करने में सक्षम नहीं होता वहां उसकी ओर से प्राधिकृत व्यक्ति
उसकी स्वीकृति कर सकता है इसमें-
Ø विधिपूर्ण संरक्षक
Ø सुपुर्ददार
Ø प्रबंधक
Ø प्राधिक्रत अभिकर्ता आते हैं
इनके द्वारा की गई अभिस्वीकृति अथवा
संदाय कर वही प्रभाव होता है जो स्वयं दायी व्यक्ति द्वारा किए जाने का होता है।
उदाहरण के लिए यदि किसी अव्यस्क की ओर से उसके संरक्षक द्वारा संदाय किया जाता है
तो वह विधिमान्य होगा।
9) नया वादी या प्रतिवादी प्रतिस्थापित करने
या जोड़ने का प्रभाव- धारा 21 में सामान्य नियम
का प्रतिपादन किया गया है कि जब वाद संस्थित करने के पश्चात नया वादी- प्रतिवादी
जोड़ा या प्रतिस्थापित किया जाता है तब वाद ऐसे व्यक्ति को पक्षकार बनाए जाने की
तिथि से संस्थित किया गया माना जाता है। लेकिन ऐसा पक्षकार नहीं बनाया जाना सदभावी
भूल का परिणाम है तो वाद पूर्ववर्ती तारीख से संस्थित किया माना जाएगा।
10)
चालू रहने वाले भंग और अपक्रत्य- धारा 22 में प्रावधान किया गया है कि किसी चालू रहने वाले संविदा
भंग यह अपकृत्य की दशा में एक नया परिसीमा काल उस समय के दौरान प्रतिक्षण चलना
प्रारंभ होता रहता है जिसमें यथास्थिति ऐसा भंग या अपकृत्य चालू रहे। दूसरे शब्दों
में यह भी कहा जा सकता है कि जब तक संविदा भंग अथवा अपकृत्य चालू रहता है तब तक हर
क्षण परिसीमा काल का चलना प्रारंभ रहता है।
Dr Nupur Goel
Assistant Professor
Shri ji institute of legal vocational education and
research
( SILVER law collage )
Barkapur Bareilly
Email – nupuradv@gmail.com
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